नगराम की गलियों में आज भी जब लोग मोहब्बत, एख़लाक़ और इंसानियत का ज़िक्र करते हैं तो एक ही नाम ज़ुबान पर आता है — सैयद जावेद अब्बास साहब।
आज उनकी बरसी है। वक्त गुजर गया, साल बदलते रहे, लेकिन सच तो यह है कि उनकी यादें आज भी उतनी ही ताज़ा हैं जितनी 20 अगस्त 2014 के उस काले दिन के बाद थीं।
वो दिन जिसे नगराम भूल नहीं पाया
20 अगस्त की सुबह थी। लोग अपने-अपने कामों में लगे थे। अचानक नगराम की मस्जिदों से लाउडस्पीकर के ऐलान से खबर आई कि जावेद भाई नहीं रहे। किसी को यक़ीन ही नहीं हुआ।बेचैन चाहने वाले उनके घर की तरफ दौड़ गए।
"अरे! अभी तो कल तक उनसे मुलाक़ात हुई थी… हंसते-बोलते बैठे थे… यह कैसे हो गया?"
बात-बात में मुस्कुराने वाले, सबके काम आने वाले, रिश्तों को संभालने वाले जावेद भाई यूँ अचानक सबको छोड़कर चले जाएंगे — किसी ने सोचा तक नहीं था।
कहते हैं सफर बिजनौर से नगराम आते वक्त उन्हें प्यास लगी, ढाबे से कोल्ड ड्रिंक ली और फिर तबियत बिगड़ गई। सरदर्द, उल्टियां और रात भर की तकलीफ… सुबह-सुबह एक हिचकी के साथ उन्होंने अल्लाह के हुक्म पर लब्बैक कह दिया।
उस वक्त का मंजर आज भी आंखों में ताज़ा है। नगराम की गलियां लोगों से भर गई थीं। हर शख्स रो रहा था। बुज़ुर्ग, नौजवान, औरतें, बच्चे — सबके चेहरे पर सदमा था।
मोहब्बत का सलीका
जावेद भाई से मिलकर लगता था कि मोहब्बत कोई किताब से सीखी हुई चीज़ नहीं, बल्कि इंसान के दिल से निकलने वाली रौशनी है।
वो जब मिलते थे तो गले लगाकर पूछते: “सब खैरियत तो है?”
उनके लहजे में ऐसी गर्मजोशी होती थी कि सामने वाला भूल जाता अपने गमों को एक खुशी की ताकत महसूस करता।
रिश्तेदारी निभाने का जो हुनर उन्हें आता था, वो आज के ज़माने में मुश्किल से देखने को मिलता है। रिश्तेदारी,दोस्ती निभाना, ग़रीबों की मदद करना, और हर मज़लूम के साथ खड़ा रहना — यही उनकी असल पहचान थी।
समाजसेवा और जिम्मेदारियां
सिर्फ अपने घर तक सीमित रहना उनका स्वभाव नहीं था। वे अंजुमन अब्बासिया के सदर और नगराम फ़ाउंडेशन के सचिव रहे। इन दोनों जिम्मेदारियों को उन्होंने ईमानदारी और लगन से निभाया।
उनका मक़सद साफ था — “समाज में कोई भूखा न रहे, कोई बे-सहारा न रहे, और नगराम की मजलिसों का सिलसिला हमेशा रोशन रहे।”
इंसानियत की ऐसी मिसाल
उनके इंतकाल पर जो मंजर देखा गया, वह नगराम की तारीख़ में हमेशा याद रखा जाएगा।
हज़ारों लोगों ने उनके जनाज़े में शिरकत की। शिया-सुन्नी, हिंदू-मुस्लिम सबने मिलकर उनको सुपुर्द ए खाक किया। यह उनकी मोहब्बत और हरदिलअज़ीज़ होने का सबसे बड़ा सबूत था।
आज़ादारी से लगाव
जावेद भाई का दिल इमाम हुसैन (अ.स.) की आज़ादारी में बसता था। उनका अपना इमामबाड़ा आज भी आबाद है। वहां मजलिसें उसी जज़्बे और उसी मोहब्बत के साथ होती हैं, जैसे उनके जमाने में होती थीं।
वो हमेशा कहते थे कि “आज़ादारी सिर्फ रोने का नाम नहीं, बल्कि इंसानियत और इंसाफ का पैग़ाम है।”
जावेद भाई सिर्फ समाजसेवक ही नहीं, बल्कि मजलिस भी पढ़ते थे। इमाम हुसैन (अ.स.) की याद को ज़िंदा रखना उनका जुनून था। उनका इमामबाड़ा आज भी उनके जज्बात की कद्र करता है।
शानदार वंश और तालीम की विरासत
जावेद भाई मशहूर शिक्षाविद् मौलाना सैयद हसन अब्बास रिज़वी साहब के बेटे थे। तालीम, तहज़ीब और मोहब्बत की ये विरासत उन्हें अपने वालिद से मिली थी, और उन्होंने इसे पूरी शिद्दत के साथ आगे बढ़ाया।
परिवार और नगराम की गमगीन आवाम
उनकी जुदाई का सदमा सिर्फ नगराम ही नहीं, बल्कि बिजनौर और पूरे ज़िले ने महसूस किया। आज भी नगराम की आवाम और रिश्तेदार उनके छोटे भाई सैयद सईद अब्बास रिज़वी उनकी यादों को ताज़ा करते हैं। आंखों में आंसू हैं, दिल में दर्द है और ज़ुबान पर बस यही याद है कि “हमने सिर्फ भाई को नहीं खोया, बल्कि मोहब्बत और इंसानियत की मिसाल को खोया है।”
बरसी पर दुआ
आज उनकी बरसी पर लोग उन्हें सिर्फ याद ही नहीं कर रहे है, बल्कि उनकी बातें दोहराते हैं, उनकी मुस्कान याद करते हैं और उनकी दी हुई सीख को अपने दिल में ताज़ा करते हैं।
ख़ुदा से यही दुआ है:
“या अल्लाह! मरहूम सैयद जावेद अब्बास के दरजात बुलंद फरमा, उनकी मग़फिरत कर और हमें उनकी मोहब्बत और इंसानियत की राह पर चलने की तौफ़ीक़ अता कर।”
जावेद भाई, आप सिर्फ एक नाम नहीं थे, बल्कि मोहब्बत और इंसानियत का पैग़ाम थे। आप आज भी हमारे दिलों में जिंदा हैं और हमेशा रहेंगे।
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