आलमपुर (हैदरगढ़, बाराबंकी) | 11 मोहर्रम 1447 हिजरी / 07 जुलाई 2025:
जहां एक तरफ दुनिया धीरे-धीरे इंसानियत और रूहानियत से दूर होती जा रही है, वहीं बाराबंकी का एक गांव – आलमपुर, हर साल मोहर्रम की 11 तारीख को हुसैनी मोहब्बत, सब्र और इंसानी यकजहती का वो मंजर पेश करता है जिसे देख हर आंख नम और हर दिल रोशन हो जाता है।
यहां पिछले 22 वर्षों से समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय सचिव व पूर्व कैबिनेट मंत्री श्री अरविंद कुमार सिंह ‘गोप’ साहब एक ख़ास सबील लगवाते हैं — हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रौज़े की ज़ियारत के पास, जहां अजादारों को उनके अपने हाथों से कश्मीरी चाय, शरबत और पानी तक़सीम किया जाता है।
🌾 22 साल से जिंदा है एक रिवायत...
सन 2003 से लगातार लग रही यह सबील, अब एक धार्मिक आयोजन भर नहीं रही, बल्कि यह एक कौमी एकता, गंगा-जमुनी तहज़ीब और इंसानियत के सरोकारों का बड़ा प्रतीक बन चुकी है।
इस दिन हज़ारों की संख्या में अजादार – चाहें वो किसी भी धर्म, जाति या वर्ग के हों – इमाम हुसैन की शहादत को सलाम करने पहुंचते हैं।
🙏 गोप साहब की ज़बान से हुसैनी पैग़ाम:
"इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने करबला में यजीदियत के खिलाफ खड़े होकर हम सबको सिखाया कि जुल्म के सामने झुकना हरगिज़ मंज़ूर नहीं।
मोहर्रम मातम और अज़ादारी का महीना ज़रूर है, लेकिन साथ ही यह सब्र, सच्चाई और इंसानियत की ऊंची तालीम भी देता है।
आलमपुर की सबील इस बात की मिसाल है कि यहां हिंदू-मुस्लिम मिलकर इमाम हुसैन की याद को ज़िंदा रखते हैं।"
🍵 जब एक नेता बनता है ख़िदमतगुज़ार...
गर्मी की दोपहर में जब अजादार रौज़े की ज़ियारत करके लौटते हैं, तो गोप साहब अपने हाथों से उन्हें कश्मीरी चाय और ठंडा शरबत पेश करते हैं। यह एक नेता की भूमिका नहीं, बल्कि एक ख़िदमतगुज़ार का अक्स है, जो इंसानियत के सफ में खड़ा नज़र आता है।
🫂 एकता का पैग़ाम: हिन्दू-मुस्लिम एक साथ
इस सबील की सबसे खास बात यह है कि इसमें न कोई मजहब देखा जाता है, न कोई जात।
हिंदू-मुस्लिम दोनों मिलकर बैठते हैं, चाय पीते हैं, और करबला के 72 शहीदों को याद कर इन्साफ़ और हक़ की राह पर चलने का अहद करते हैं।
👥 कार्यक्रम में शिरकत करने वाले प्रमुख लोग:
- राम मगन रावत (पूर्व विधायक)
- डा. कुलदीप सिंह (पूर्व अध्यक्ष)
- अकील अहमद जैदी (पूर्व प्रधान)
- हशमत अली गुड्डू, अली अम्मार जैदी, मोहम्मद फारुख, रईस अहमद,
- सफीर हैदर (प्रधान), फजल मेंहदी (पूर्व प्रधान), अली जाफर,
- सिपाउल हसन, यार मोहम्मद (प्रधान), सानू राठौर
- और सैकड़ों की संख्या में गांव और आसपास के इलाके के मुहिब्बाने हुसैन।
🕊️ करबला की विरासत – आज भी ज़िंदा है...
करबला की जंग कोई भूली हुई तारीख नहीं, बल्कि हर उस दौर की आवाज़ है जहां जुल्म सर उठाता है और हुसैनी किरदार उसे शिकस्त देता है।
आलमपुर की सबील इसी आवाज़ की गूंज है, जहां गोप साहब और उनकी टीम हर साल इमाम हुसैन की याद को इज्ज़त, ख़िदमत और मोहब्बत के साथ ज़िंदा रखते हैं।
✍️ विशेष रिपोर्ट: सदाचारी लाला उमेश चंद्र श्रीवास्तव,मोहम्मद वसीक
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