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"एक चीख़ जो करंट से नहीं, गुरबत से निकली थी"असंद्रा की मां-बेटी की मौत ने पूरे गांव की रूह हिला दी — सवाल अब सिर्फ बिजली का नहीं, इंसानियत का है


तहलका टुडे टीम/सदाचारी लाला उमेश चंद्र श्रीवास्तव 

असंद्रा, बाराबंकी –सुबह वक्त गुजर चुका था , सूरज आसमान पे चढ़ कर झुलसा रहा था — लेकिन गांव के एक घर में जो आग लगी, वो बिजली की नहीं थी, वो थी भूख, मुफलिसी और लाचारी की चिंगारी। उस चिंगारी ने एक मां कनीज फातिमा (45) और बेटी चमन ज़हरा (22) को ज़िंदा जला दिया — बिजली के करंट के ज़रिए नहीं, बल्कि उस सिस्टम के करंट से, जो ग़रीब के घर को हमेशा आख़िरी पायदान पर रखता है।

"अम्मी!" — ये आख़िरी आवाज़ थी चमन की

घर में फटे तार, पुराना स्विच बोर्ड और बदनसीबी की सिलवटें। कनीज फातिमा कुछ ठीक करने की कोशिश कर रही थीं — शायद एक पंखा, शायद बिजली का तार — मगर करंट ने उन्हें पकड़ लिया।
उनकी तड़पती आवाज़ पर दौड़ी बेटी चमन, जिसने बिना सोचे मां को छू लिया — और खुद भी उसी जानलेवा झटके का शिकार हो गई।
मोहल्ले में सिर्फ एक आवाज़ गूंजती रही — "बचाओ..."
मगर बिजली काटने तक वक़्त थम गया था — और मां-बेटी के जिस्म ठंडे हो चुके थे।


एक घर... जहां अब सिर्फ खामोशी रहती है

बुज़ुर्ग असगर अली की आंखों में सिर्फ पत्थर बचा है, आंसू भी सूख चुके हैं। उनका बेटा अली हैदर रोज़ी की तलाश में गया था — और यहां, उसका पूरा आसरा खत्म हो गया।
एक तरफ़ दो लाशें, दूसरी तरफ़ सन्नाटा — और बीच में खड़ी है ग़रीबी, जो अब भी ज़िंदा है।


"सिर्फ करंट से नहीं मरीं — ये दो औरतें सिस्टम की लाश पर चढ़ कर मरी हैं"

ग्रामीण फफक कर रो रहे हैं। चमन की सहेलियों ने कहा — "वो हमेशा कहती थी, अब्बू के कमाने से कुछ दिन बाद कॉलेज जाऊंगी..."
मगर अब उसकी किताबें धूल खा रही हैं और उसकी चूड़ियां टूटी हुई दीवारों पर चिपकी हैं।


प्रशासन? वो कहां था?

पुलिस आई — पंचनामा किया — पोस्टमार्टम भेज दिया।
मगर तहसील प्रशासन, बिजली विभाग या राहत विंग?
नदारद।
ना कोई मदद, ना कोई अफ़सोस का बयान। सिर्फ सरकारी चुप्पी और काग़ज़ी हमदर्दी।


मांगें जो अब सिर्फ न्याय नहीं, इंसानियत की भीख हैं

गांव के लोग कह रहे हैं:

  • ₹5 लाख का मुआवज़ा नहीं, बल्कि यह माफी हो उस ग़रीबी की जो इन दो लाशों का कारण बनी।
  • जर्जर वायरिंग को बदलो, नहीं तो अगली मौत भी तय समझो।
  • गांवों में तकनीकी टीम हो, जो नियमित जांच करे — ताकि मौत पहले न पहुंचे।

इस गांव की मिट्टी ने एक मां और बेटी को दफ़न कर दिया  जाएगा— लेकिन असली सवाल ज़िंदा है:
क्या इस देश में गरीबों की मौत कभी ‘हादसा’ नहीं बल्कि ‘हत्या’ मानी जाएगी?
क्योंकि यहां मौत करंट से नहीं आती — वो पहले आती है भूख से, फिर बेरोजगारी से, फिर अकेलेपन से, और फिर बिजली का बहाना बन जाती है।


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